भारत का संवैधानिक विकास (भाग -1)

“अधिनियमों का अखाड़ा: कैसे ब्रिटिश सरकार के कानूनों की उठक-बैठक से भारत को मिला अपना संविधान”
कभी सोचा है कि भारत का संविधान ऐसा क्यों है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की रीढ़ बन गया? ऐसा क्या खास है इसमें जो इसे सिर्फ एक किताब नहीं बल्कि “लोकतंत्र का महाग्रंथ” बना देता है? इसका जवाब छिपा है उन कानूनी कहानियों में, जो कभी ब्रिटिश हुकूमत के बूटों के नीचे लिखी गई थीं।
तो आइए, एक दिलचस्प सफर पर चलते हैं—जहाँ Regulating Act से लेकर Indian Independence Act तक ब्रिटिश हुकूमत ने जो जो कानूनी गुल खिलाए, उन्होंने भारत के संविधान को गढ़ने की नींव रखी।
1. जब ब्रिटिश आए तो कानून साथ लाए: ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रारंभिक शासन
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी जब भारत आई, तो वो मसाले और मुनाफा लूटने आई थी, संविधान बनाने नहीं। लेकिन जब कंपनी को अहसास हुआ कि ‘लूट’ भी कानून से ही टिकाऊ होती है, तब उन्होंने कुछ नियम-कायदे बनाने शुरू किए।
Regulating Act, 1773 —
यह पहला कदम था जब ब्रिटिश सरकार ने कंपनी के कारनामों पर लगाम लगाने का नाटक किया। बंगाल के गवर्नर को गवर्नर जनरल बना दिया गया। वॉरेन हेस्टिंग्स नामक सज्जन को पहली बार सत्ता का स्वाद मिला। इस अधिनियम ने बताया कि ब्रिटिश सरकार अब केवल शेयर होल्डर नहीं, मालिक बनने आई है।
2. Pitt’s India Act, 1784 — दो नावों में सवारी
अब कंपनी और ब्रिटिश सरकार दोनों मिलकर भारत पर राज करने लगे। एक तरफ Board of Control, दूसरी ओर Court of Directors—बिलकुल वैसे ही जैसे आजकल किसी कंपनी में CEO और मालिक दोनों की अपनी-अपनी सरकार होती है। इसमें भारतीयों की कोई भूमिका नहीं थी, सिवाय टैक्स भरने और चुपचाप जीने के।
3. Charter Acts की सीरीज — हर बीस साल में नई चाय की चुस्की
Charter Act, 1813 | 1833 | 1853
- 1813: चर्च को भेजा गया धर्म का प्रचार करने
- 1833: लॉर्ड विलियम बेंटिक को बनाया गया पहले गवर्नर जनरल, और कहा गया “भारत एक ही प्रशासनिक इकाई है”
- 1853: पहली बार भारतीयों के लिए सिविल सर्विस की परीक्षा खोल दी गई—शर्त ये थी कि पास भी कर लो, तो भी नौकरी शायद मिले ना मिले!
4. 1857 की क्रांति और 1858 का अधिनियम — कंपनी गई, ताज आया
1857 में जब भारत ने पहली बार “बहुत हो गया अब” कहते हुए बगावत की, तो ब्रिटिश सरकार को कंपनी से कह दिया गया: “थैंक यू, अब हमें खुद शासन करना है।”
Government of India Act, 1858 ने भारत में ब्रिटिश ताज की प्रत्यक्ष सत्ता की घोषणा की। कंपनी का बोरिया-बिस्तर बंधा और भारत में वायसरॉय का आगमन हुआ।
5. Indian Councils Acts (1861, 1892, 1909) — राजनीतिक पकोड़े का पहला तड़का
धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार ने महसूस किया कि “Divide and Rule” के लिए भारतीयों को भी थोड़ी सी participation illusion देना ज़रूरी है।
- 1861: कुछ भारतीयों को सलाहकार बना दिया गया—जैसे शादी में दूर के रिश्तेदारों को बुलाकर खाना खिला दो।
- 1892: थोड़ी बहुत चर्चा की छूट दी गई।
- 1909: Minto-Morley Reforms ने मुस्लिमों को अलग प्रतिनिधित्व दिया। यही बीज था अलगाववाद का।
6. Government of India Act, 1919 — “Diarchy”: सरकार दो हिस्सों में बटी
अब भारत में दोहरी सरकार आई—एक केंद्र में, एक प्रांत में। लेकिन असली सत्ता ब्रिटिश अफसरों के हाथ में ही रही।
यह वो समय था जब भारतीय नेताओं को लगा कि “अब संविधान चाहिए, नहीं तो गांधी जी डांडी मार्च करेंगे।”
7. Government of India Act, 1935 — संविधान का ड्राफ्ट मॉडल
इस अधिनियम को “संविधान की मां” कहा जा सकता है। इसमें प्रांतों को स्वायत्तता दी गई, संघीय ढांचे का विचार आया, और केंद्र-राज्य संबंधों की झलक मिली।
लेकिन फिर भी “अधिकार कम, जिम्मेदारी ज़्यादा” वाली स्थिति रही। ब्रिटिश बोले—“संविधान तो देंगे, पर पूरी आज़ादी नहीं!”
8. Cripps Mission, Cabinet Mission, और फाइनली 1947
1942 में जब द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत से समर्थन माँगा गया, तो क्रिप्स मिशन आया—नाम क्रिप्स, लेकिन वादे काफी क्रिस्प!।
1946 में कैबिनेट मिशन ने संविधान सभा बनाने का प्रस्ताव दिया, और फिर इतिहास ने करवट ली…
9. Indian Independence Act, 1947 — तलाक़ का कानूनी दस्तावेज़
15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हुआ, लेकिन एक खंडित आज़ादी के साथ। भारत और पाकिस्तान दो अलग देशों के रूप में उभरे, और इसी अधिनियम के तहत संविधान सभा को संविधान निर्माण की ज़िम्मेदारी दी गई।
10. संविधान सभा और भारतीय संविधान का निर्माण — सपना हुआ सच
1946 में बनी संविधान सभा ने लगभग 2 साल 11 महीने 18 दिन में भारत का संविधान तैयार किया—जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ।
डॉ. भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता में बने इस संविधान ने ब्रिटिश अधिनियमों से मिले अनुभवों को भारतीय ज़रूरतों के अनुसार ढाल दिया।
तो ये थी ब्रिटिश अधिनियमों से भारतीय संविधान तक की चटपट यात्रा—जिसमें हर अधिनियम एक नया मोड़ लेकर आया, कभी भ्रमित किया, कभी भड़काया और अंत में भारत को आत्मनिर्भर बना गया।
भारतीय संविधान एक झंडा नहीं, जज्बा है—जो हर उस धूलभरे अंग्रेज़ी कानून के पन्ने पर टिकी है, जिसे भारत ने पढ़ा, समझा और फिर लिखा अपना खुद का ग्रंथ।

चलिए अब इन एक्ट्स को अब विस्तार से देखा जाए।

भारत के संवैधानिक विकास की पहली सीढ़ी व—“Regulating Act, 1773”। इसे आप संवैधानिक विकास की पहली ठिठुरती सुबह भी कह सकते हैं, जहाँ से भारत के प्रशासनिक ढांचे के रूप में “कानून” की कहानी शुरू होती है।
“Regulating Act 1773: जब ब्रिटिश संसद ने कंपनी को कहा – ‘अब ज़्यादा उछलो मत'”
सन 1773 का साल, लंदन की संसद, भारत से लूटकर भरे गए खज़ाने, और एक कंपनी जो अब सिर्फ मसाले नहीं, पूरी एक सभ्यता हजम कर रही थी। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का व्यवहार देखकर इंग्लैंड के सांसदों को चिंता हुई—“कहीं ऐसा न हो कि ये कंपनी एक दिन हमें ही खरीद ले!”
बस फिर क्या था, संसद ने तय किया कि अब ‘रेगुलेट’ करना होगा—और इसी फैसले से जन्म हुआ Regulating Act, 1773 का।
Regulating Act, 1773: पहली बार भारत के लिए बना कोई ‘सरकारी कंट्रोल सिस्टम’
मुख्य उद्देश्य:
ईस्ट इंडिया कंपनी की बढ़ती ताक़त पर अंकुश लगाना और भारत में कंपनी के शासन को नियंत्रित करना।
क्यों ज़रूरत पड़ी इस अधिनियम की?
- ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसर बने ‘लॉर्ड ऑफ लूट’ — प्लासी (1757) और बक्सर (1764) की लड़ाइयों के बाद कंपनी ने बंगाल की दीवानी हासिल कर ली और यहाँ से पैसा बहाकर लंदन भेजा जा रहा था।
- बंगाल की तबाही और भ्रष्टाचार — बंगाल में प्रशासनिक अराजकता थी, कंपनी के अधिकारी खुल्लमखुल्ला रिश्वत लेते थे और प्रजा त्राहि-त्राहि कर रही थी।
- ब्रिटेन में कंपनी की आर्थिक हालत खराब — इतनी लूट के बाद भी कंपनी कर्ज़ में डूब रही थी! संसद ने देखा कि कुछ तो गड़बड़ है।
प्रमुख प्रावधान (Main Provisions of Regulating Act 1773):
- बंगाल का गवर्नर बना ‘गवर्नर जनरल’
- वॉरेन हेस्टिंग्स बने पहले गवर्नर जनरल ऑफ बंगाल
- मद्रास और बॉम्बे के गवर्नर अब बंगाल के अधीन हो गए
*(अब केंद्र और राज्य का कॉन्सेप्ट पैदा हुआ!)
- एक कार्यकारी परिषद (Executive Council)
- गवर्नर जनरल के साथ 4 सदस्यीय परिषद बनाई गई, पर निर्णय बहुमत से होने थे—मतलब हेस्टिंग्स को भी लोकतंत्र सीखना पड़ा।
- ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण शुरू
- पहली बार ब्रिटिश संसद ने भारतीय मामलों में हस्तक्षेप करना शुरू किया।
- कंपनी के निदेशकों को सरकार को रिपोर्ट देनी पड़ी।
- कलकत्ता में बना सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court)
- 1774 में कलकत्ता में पहली बार सुप्रीम कोर्ट की स्थापना हुई।
- ब्रिटिश कानून और भारतीय परंपराएं टकराईं, और कानूनी गड़बड़ियां बढ़ीं।
- कंपनी के कर्मचारियों पर सख्ती
- रिश्वत और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने की कोशिश की गई।
- अब अफसरों को कंपनी के बाहर गिफ्ट लेना मना था—पर क्या वाकई माने?
Regulating Act की विशेषताएँ (Features):
- यह भारत में ब्रिटिश शासन की आधारशिला थी।
- पहली बार केंद्र में एक एकीकृत शासन की अवधारणा सामने आई।
- भारत में कार्यपालिका + न्यायपालिका की संरचना का बीज यहीं बोया गया।
कमज़ोरियाँ और समस्याएँ:
- गवर्नर जनरल और परिषद के बीच झगड़े आम बात बन गई।
- कलकत्ता का सुप्रीम कोर्ट स्थानीय कानूनों को नजरअंदाज कर ब्रिटिश कानून थोपता रहा।
- ब्रिटिश संसद को और अधिक हस्तक्षेप की जरूरत महसूस हुई।
Regulating Act, 1773 का ऐतिहासिक महत्व:
- संवैधानिक विकास की पहली सीढ़ी
- भारत में ब्रिटिश राज्य का सरकारी मॉडल यहीं से शुरू हुआ।
- संविधान निर्माण की नींव
- यह अधिनियम भविष्य के अधिनियमों का आधार बना—1784, 1813, 1833, और अंततः 1935 तक।
- भारतीय लोकतंत्र की परछाई
- भले ही यह ‘लोकतंत्र’ नहीं था, लेकिन गवर्नेंस के नियम यहीं से बनने लगे।
Regulating Act, 1773 को आप उस पहली घंटी की तरह मान सकते हैं, जिसने ब्रिटिश संसद को चेताया कि अब ईस्ट इंडिया कंपनी को अकेला छोड़ना देश और कंपनी दोनों के लिए खतरा है।
यही अधिनियम भारत के संविधानिक इतिहास की शुरुआत है—जहाँ से “शासन” शब्द ने भारत की सड़कों पर पहला कदम रखा।

Act of Settlement 1781: जब अदालत बोली – “अब इतना अंग्रेज़ न बनो, थोड़ा देसी भी सोचो!”
ब्रेकिंग न्यूज़: 1774 में कलकत्ता में आफ़त आ गई!
न कोई तूफ़ान आया, न प्लेग फैला, न कोई राजा मरा।
मुसीबत आई सुप्रीम कोर्ट की शक्ल में!
Regulating Act 1773 के तहत बन गई थी एक चमचमाती अंग्रेज़ी अदालत – Supreme Court of Judicature at Fort William, Calcutta.
बड़े-बड़े जज साहब लंदन से आए और सीधा जनता पर बरस पड़े –
“अबसे तुम्हारा भगवान – British Common Law है!”
और जनता बोले – “हमें तो उसका ट्रांसलेशन भी नहीं आता सरकार!”
भारत में कानून का पहला ‘कानूनी हंगामा’
सुप्रीम कोर्ट ने जबरन ब्रिटिश कानून थोपना शुरू कर दिया।
चोरी, ज़मीन विवाद, शादी-ब्याह, तलाक, दहेज – सब कुछ में अंग्रेजी किताबें खुलने लगीं।
ब्राह्मण परेशान, मौलवी हैरान, बनिया घबराया, और गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स खुद कहने लगे –
“इन जजों को कोई रोको, नहीं तो पूरी सरकार कोर्ट में पेशी देगी!”
और फिर आया – The Great Compromise: Act of Settlement 1781!
ब्रिटिश संसद ने महसूस किया कि ये कोर्ट तो खुद को भगवान समझने लगी है।
तो लंदन से आया एक नया तोहफ़ा – Act of Settlement 1781
और साथ ही आया आदेश –
“कोर्ट को भी नियमों में बांधो, नहीं तो ये कलकत्ता को कोर्ट-कट्टा बना देंगे!”
अब जरा समझिए, इस Act ने किया क्या:
1. सुप्रीम कोर्ट, तुम्हारी हद तय!
अब कोर्ट सिर्फ़ कलकत्ता नगर तक सीमित – गाँव, क़स्बे, जंगल, पहाड़ सब बच गए!
मतलब अब जज साहब हर जगह “Order Order!” नहीं चिल्ला सकते थे।
2. भारतीयों को मिली कानूनी साँस:
पहली बार अदालत को कहा गया –
“हिंदू को हिंदू कानून से न्याय दो, मुसलमान को शरीयत से!”
न कि किसी अंग्रेज़ी बुक ऑफ लॉ के चैप्टर 7 से।
3. प्रशासन और अदालत में तकरार खत्म:
अब सुप्रीम कोर्ट, गवर्नर जनरल और उनकी काउंसिल पर ऊँगली नहीं उठा सकती।
कोई बोले – “सरकार ने गलत किया”, तो कोर्ट बोले – “No comments, jurisdictional issue!”
4. ईस्ट इंडिया कंपनी की इज्जत बहाल:
पहले कोर्ट कंपनी को नानी याद दिला रही थी –
“तुम्हारी बनाई पॉलिसी तो गैर-कानूनी है!”
अब बोला गया – कंपनी के रेगुलेशन भी मान्य हैं।
मतलब – कोर्ट अब कंपनी से सीधी लड़ाई नहीं करेगा।
Act of Settlement 1781 क्यों खास था?
- भारत में न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच पहली बार लक्ष्मण रेखा खिंची।
- भारतीयों को अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं के हिसाब से न्याय मिला।
- सुप्रीम कोर्ट को अपने “British Overacting” से ब्रेक लेना पड़ा।
- संविधान के विकास में यह पहला कदम था जहाँ विदेशी कानूनों को देसी चश्मे से देखा गया।
Act of Settlement 1781 ने भारत के संवैधानिक इतिहास को एक ज़रूरी मोड़ दिया।
यह एक्ट एक “Reality Check” था ब्रिटिश अदालतों के लिए और एक “Respect Card” था भारतीय परंपराओं के लिए।
इसने बताया कि अगर आप किसी देश में राज करना चाहते हैं, तो वहाँ के कानून, समाज और संस्कृति को समझना भी ज़रूरी है – वरना अदालतें बनेंगी और जनता दूर भागेगी।

Pitt’s India Act 1784: जब कंपनी को सरकार ने कहा – “अब अकेले नहीं चलेगा तेरा खेल!”
सन 1784, ब्रिटेन – संसद में हंगामा मचा हुआ है। एक सांसद चिल्ला रहा है –
“ईस्ट इंडिया कंपनी इंडिया में मनमानी कर रही है!”
दूसरा बोलता है – “सरकार कहाँ है? ये तो कंपनी का प्राइवेट शो बन गया है!”
क्योंकि 1773 में Regulating Act लाकर सरकार ने सोचा था कि कंपनी सुधर जाएगी।
पर कंपनी तो निकली – “बॉस मैं अपने ही नियमों से चलूंगा” टाइप!
न गवर्नर जनरल की सुनती, न ब्रिटिश संसद की।
और तब आया एक नया नेता – William Pitt the Younger,
जिसने कहा – “अब ये दोहरी सरकार का तमाशा बंद! एक साफ-सुथरा सिस्टम लाओ।”
और बना दिया – Pitt’s India Act 1784
Scene 1: दो नावों में सवार ईस्ट इंडिया कंपनी
ईस्ट इंडिया कंपनी एक अजीब प्राणी थी –
नाम से व्यापारी, काम से शासक, व्यवहार से राजा, और हिसाब से बेईमान।
कभी व्यापार करती, तो कभी कर वसूलती,
कभी जनता पर गोली चलाती, तो कभी अदालत खोलती।
अब ब्रिटिश सरकार को लगा – “ये तो दो नावों में पैर रखकर Titanic बना रही है!”
तो Pitt साहब ने कहा – सरकार और कंपनी को दो अलग-अलग रोल दो, पर नियंत्रण एक का हो!
Act ने किया क्या-क्या जादू?
1. बनाई गई एक नई सुपरबॉस बॉडी – Board of Control
अब ईस्ट इंडिया कंपनी को ब्रिटिश सरकार की निगरानी में ला दिया गया।
Board of Control में थे ब्रिटिश मंत्री, जिनका काम था –
“कंपनी की हर चिट्ठी पढ़ना, हर प्लान पर नज़र रखना, और हर फैसले को ओके या रिजेक्ट करना!”
मतलब कंपनी कुछ भी करेगी तो पहले पूछेगी –
“सर, टैक्स बढ़ाएं?”
“सरकार: Approved!”
“सर, युद्ध करें?”
“सरकार: Denied!”
2. कंपनी की लूट पर लगाया गया “नर्म सा लगाम”
अब कंपनी की राजनीतिक शक्तियां सरकार के अधीन आ गईं।
हां, व्यापार वो अब भी कर सकती थी, लेकिन “डीलिंग्स विद पॉलिटिक्स – अब नो मोर फ्री हैंड!”
3. गवर्नर जनरल बना ‘सुपर’ गवर्नर
अब बंगाल का गवर्नर जनरल बना पूरे भारत का बॉस।
उसके तहत मद्रास और बॉम्बे के गवर्नर आ गए।
मतलब अब गवर्निंग बोर्ड नहीं बल्कि “सुपरसीनियर” वाला सिस्टम।
4. दोहरी सरकार की दो टूक – Dual but Controlled Rule
Company will rule, but Britain will review.
Company will trade, but Britain will control.
साफ शब्दों में –
“तू राजा है मैदान में, पर तेरी फाइलें अब हमारे पास आएंगी!”
Act of Settlement 1781 बनाम Pitt’s India Act 1784 – फ़र्क क्या था?
Act of Settlement 1781 ने न्यायिक अव्यवस्था को ठीक किया,
Pitt’s India Act ने राजनीतिक और प्रशासनिक अराजकता पर वार किया।
1781 ने कोर्ट को सुधारा,
1784 ने कंपनी को सुधारा।
और दोनों मिलकर ब्रिटिश राज को थोड़ा सभ्य, थोड़ा सख़्त और बहुत ज़्यादा शातिर बना गए।
Pitt’s India Act 1784 का असर – Company से Government बनने की यात्रा शुरू!
- भारत अब कंपनी का Playground नहीं रहा।
- गवर्नर जनरल की ताक़त बढ़ी, जिससे एक केंद्रीकृत शासन की नींव पड़ी।
- ब्रिटिश सरकार को भारत पर सीधा नियंत्रण मिला – और यहीं से शुरू हुआ वो राज, जो 1857 तक पूरी तरह Crown Rule में बदल गया।
Pitt’s India Act 1784 एक ऐसा कानून था, जिसने ईस्ट इंडिया कंपनी से कहा –
“अब तुम सिर्फ़ व्यापारी नहीं रहे, तुम्हारा हर कदम सरकार की नज़रों में है।”
यह एक्ट था – ब्रिटिश सरकार के रिमोट कंट्रोल का वो पहला बटन, जिसे दबाकर भारत की राजनीति को उन्होंने अपने हाथ में लेना शुरू किया।

चार्टर एक्ट 1793: कंपनी बोली – “अब तो भारत हमारा ही ऑफिस है बॉस!”
1793 में ब्रिटिश सरकार ने ईस्ट इंडिया कंपनी को फिर से वही कहा, जो हम सब अपने Netflix अकाउंट से सुनना चाहते हैं –
“आपका सब्सक्रिप्शन सफलतापूर्वक 20 साल के लिए बढ़ा दिया गया है।”
कंपनी ने गाना बजा दिया –
“अब तो हमको आदत सी हो गई है, भारत पर राज करने की…”
1. कंपनी को मिला ‘रेन्यू ऑफ द ईयर अवार्ड’
ब्रिटिश संसद ने कहा –
“ठीक है भाई, अगले 20 साल फिर से तुम ही भारत से व्यापार करोगे, बाकी सब बैठकर चाय पीएंगे।”
अब कोई और कंपनी भारत में पैर नहीं रख सकती थी।
ईस्ट इंडिया कंपनी = भारत की Amazon Prime!
2. सत्ता का असली बॉस कौन?
इस अधिनियम ने पहली बार साफ कहा –
“भारत में जो भी ज़मीन-कब्ज़ा होगा, वो ब्रिटिश क्राउन की मिल्कियत होगी।”
कंपनी बोले –
“हम राजा नहीं, सिर्फ़ सेक्रेटरी हैं।”
सरकार बोले –
“और तुम लोग हमारे पैसे से पार्टी भी करोगे और अफसर भी बनोगे? Dream On!”
3. गवर्नर-जनरल को मिला ‘Power-Up Mode’
चार्टर एक्ट ने गवर्नर-जनरल को दे दी Unlimited Power
- अगर काउंसिल न माने, तो वो बोले –
“तुम्हारी नहीं, मेरी चलेगी!” - जब वो बॉम्बे या मद्रास जाएँ, वहाँ के गवर्नर भी कहें –
“सर, आप ही सुपर गवर्नर हैं!” - बंगाल में ना हों, तो खुद ही अपना डिप्टी बना लें –
“अब तू देख ले भाई, मैं बाहर जा रहा हूँ!”
4. कंट्रोल बोर्ड का ‘Reels’ अपडेट
अब बोर्ड ऑफ कंट्रोल में एक अध्यक्ष और दो कनिष्ठ सदस्य होंगे,
और ये कोई जरूरी नहीं कि Privy Council से हों।
सरकार ने कहा –
“अब भारत पर नज़र रखने के लिए ज्यादा स्टाफ चाहिए, थोड़ा सस्ता भी!”
5. मुनाफा – पैसा ही पैसा होगा!
कंपनी के शेयरधारकों को अब 10% डिविडेंड मिलेगा।
मतलब –
“राज करो, कमाओ, और मुनाफा भी गिनो!”
यह ऐसा था जैसे सरकार ने खुद ही कंपनी के निवेशकों को कह दिया –
“आपका पैसा दुगुना नहीं, दस गुना हो सकता है!”
6. खर्चा भी खुद ही उठाओ
अब बोर्ड के अफसरों की तनख्वाह, चाय-पानी का बिल, AC की बिजली –
सब कंपनी के सिर पर!
उपर से हर साल भारतीय राजस्व से 5 लाख रुपये सरकार को भी देने हैं।
कंपनी बोली –
“ये तो EMI की तरह लग रहा है!”
7. अफसरों की छुट्टी भी ‘Permission Required’
अब कोई बड़ा अफसर भारत छोड़कर भाग नहीं सकता था जब तक सरकार से परमिशन ना ले।
अगर गया, तो माना जाएगा –
“आप छुट्टी पर हैं… तनख्वाह बंद!”
8. देशी व्यापार + अफीम = कमाई का नया ‘Formula’
कंपनी को यह अधिकार मिला कि वो खास लोगों को व्यापार करने का लाइसेंस दे।
इसे कहा गया – “देश व्यापार”
यहीं से अफीम का धंधा ज़ोरों पर शुरू हुआ –
“भारत से उगाओ, चीन को बेचो, और लंदन में मौज करो!”
चार्टर एक्ट 1793 था कंपनी के लिए “सरकारी ठप्पा, फुल लुटाई!”
सरकार ने अपना कंट्रोल बढ़ाया, लेकिन कंपनी को भी एक नया lease of life मिल गया।
ये एक्ट था –
“राज करो, पैसा छापो, लेकिन याद रखो – मालिक लंदन में बैठा है!”
Charter Act 1813: व्यापार चालू, मनमानी बंद!
सन् 1813 — ब्रिटिश संसद में फिर से बहस शुरू:
“ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में राज करने का एक्सटेंशन दिया जाए या नहीं?”
क्योंकि भाई, पिछला लाइसेंस तो 1793 में मिला था, अब 20 साल पूरे हो गए थे।
पर सवाल ये था — कंपनी व्यापार करे, या ताज पहन कर बादशाह बन जाए?
और तब आया – Charter Act 1813
जिसने कंपनी से साफ़-साफ़ कहा –
“धंधा करो, लेकिन बिना घमंड के! और जो भारत को गुमराह कर रहे हो, वो अब बंद होगा!”
Act ने कंपनी की चाय में क्या-क्या नींबू डाला?
1. व्यापार का एकाधिकार टूटा – “अब तू अकेला नहीं है बाजार में!”
अब तक ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत के साथ व्यापार पर पूरा एकाधिकार था।
पर इस एक्ट ने कंपनी को झटका देते हुए कह दिया –
“अब कोई भी ब्रिटिश व्यापारी भारत के साथ व्यापार कर सकता है (बस चाय और चीन छोड़कर)!”
यानि कि कंपनी का Monopoly सिस्टम गया तेल लेने।
अब बाजार खुला – Competition आया – और कंपनी को पहली बार लगा कि “बाज़ार भी क्रूर होता है!”
2. शासन का अधिकार अब भी कंपनी के पास – पर सरकार की नज़र हर वक्त!
ब्रिटिश सरकार ने कहा –
“हम व्यापार तो खुला कर रहे हैं, पर शासन का अधिकार अब भी तुम्हारे पास रहेगा। लेकिन ध्यान रहे – अब मनमानी नहीं चलेगी।”
मतलब कंपनी अब भी राज कर सकती थी, लेकिन हर फाइल पर सरकार की एक अदृश्य मोहर लगी रहने लगी।
3. भारत में शिक्षा और धर्म का ‘बोलबाला’ – बाइबिल लेकर पहुंचे मिशनरी!
अब सरकार ने कहा –
“भारत में अंग्रेज़ी शिक्षा, विज्ञान और ईसाई धर्म का प्रचार होना चाहिए।”
इसका मतलब – मिशनरी लोगों को अब खुलकर भारत में प्रचार की इजाज़त मिल गई।
और यही से शुरू हुआ –
- मिशनरी स्कूलों का आगमन
- ईसाई धर्म का प्रचार
- अंग्रेज़ी भाषा का धीरे-धीरे प्रभाव
यानि “तलवार से नहीं, अब शिक्षा और धर्म से दिल जीतने की कोशिश शुरू!”
4. शिक्षा के लिए पहली बार ‘बजट’ – पूरे 1 लाख रुपये सालाना!
ब्रिटिश संसद ने पहली बार कहा –
“भारत में शिक्षा को बढ़ावा दो – लो ये रहे ₹1 लाख हर साल!”
हाँ, ये और बात है कि ये पैसे कहाँ-कहाँ गए, किसके स्कूल खुले – ये आज तक एक रहस्य है!
पर इस एक्ट से कंपनी को असली झटका क्या मिला?
- Monopoly टूटने से पहली बार उसे लगा – अब “अकेले राजा” वाली बात नहीं रही।
- भारत में अब दूसरी आवाज़ें भी उठने लगीं – शिक्षा, धर्म, व्यापार सब पर।
- मिशनरी स्कूलों के ज़रिए भारतीयों को “आधुनिक” बनाने की अंग्रेज़ी साजिश शुरू हुई।
Charter Act 1813 वो मोड़ था जहाँ से कंपनी का “Exclusive Rule” ढीला पड़ने लगा,
भारत में अंग्रेज़ी शिक्षा की नींव रखी गई,
और “धर्म के ज़रिए नियंत्रण” का दौर शुरू हुआ।
एक लाइन में कहें तो –
“कंपनी को कहा गया – व्यापार तेरा काम है, पर भारत की आत्मा से खेलने की छूट अब नहीं!”
चार्टर एक्ट 1833: कंपनी का व्यापारिक ताज उतरा, हुकूमत का ताज चढ़ा!
सन् 1833 का साल ब्रिटिश भारत के लिए एक बड़ा मोड़ लेकर आया।
ईस्ट इंडिया कंपनी अब व्यापारी से बदलकर ‘शासक’ के रोल में पूरी तरह फिट की जा रही थी।
इस बार संसद ने सिर्फ़ एक चार्टर एक्ट नहीं दिया, बल्कि भारत में केंद्रीय शासन, क़ानून निर्माण और प्रशासन की एक नई दिशा तय की।
1. व्यापार का एकाधिकार खत्म – लेकिन कारोबार पूरी तरह नहीं
सबसे अहम बात –
ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत और चीन के साथ व्यापार पर जो “एकाधिकार” (monopoly) था, वो खत्म कर दिया गया।
मतलब ये नहीं कि कंपनी अब व्यापार नहीं कर सकती,
बल्कि अब कोई भी ब्रिटिश नागरिक या कंपनी भारत में व्यापार कर सकती थी।
कंपनी अब “Special Privilege” वाली संस्था नहीं रही –
वो एक ‘सरकारी ठेकेदार’ की तरह प्रशासन संभालती रही, पर बिना एक्सक्लूसिव व्यापारिक लाभ के।
2. भारत का पहला ऑल-इंडिया बॉस – गवर्नर-जनरल ऑफ इंडिया
इस एक्ट ने पहली बार भारत में एक केंद्रिय शक्ति स्थापित की –
गवर्नर-जनरल ऑफ इंडिया का पद।
लॉर्ड विलियम बेंटिक बने पहले व्यक्ति जिन्हें ये शक्तियाँ मिलीं।
अब मद्रास और बॉम्बे भी बंगाल के गवर्नर-जनरल के अधीन हो गए।
भारत के प्रशासन का केंद्रीकरण यहीं से शुरू हुआ।
3. कानून का कारख़ाना – विधि आयोग और IPC की नींव
चार्टर एक्ट 1833 के तहत पहली विधि आयोग (Law Commission) की स्थापना की गई।
अध्यक्ष बने – थॉमस बबिंगटन मैकॉले।
इस आयोग का लक्ष्य था –
भारत के लिए एक समान, आधुनिक और व्यवस्थित क़ानूनी ढाँचा तैयार करना।
इसी का परिणाम था –
भारतीय दंड संहिता (IPC) की शुरुआत, जो बाद में 1860 में लागू हुई।
4. केंद्रीय विधान परिषद – भारत की पहली कानून बनाने वाली संस्था
गवर्नर-जनरल की कार्यकारी परिषद में अब एक कानून सदस्य जोड़ा गया,
जिसका काम था – पूरे ब्रिटिश भारत के लिए कानून बनाना।
यहीं से ‘सेंट्रल लेजिस्लेटिव काउंसिल’ की नींव पड़ी।
5. भारतीयों को नौकरी में समान अवसर? सिर्फ़ बयानबाज़ी!
इस एक्ट में एक महत्वपूर्ण नैतिक उद्घोषणा की गई –
सरकारी नौकरियों में भारतीयों को धर्म, नस्ल या जाति के आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा।
लेकिन व्यवहार में ये सिर्फ़ एक आदर्श वाक्य साबित हुआ।
अंग्रेज़ों ने “मेरिट” की ऐसी परिभाषा तय की कि
अधिकांश भारतीय सिर्फ़ दूर से देख ही पाए।
6. दासप्रथा के विरोध की घोषणा – लेकिन बिना धार के
अधिनियम ने दासप्रथा की आलोचना तो की,
पर कोई ठोस प्रावधान या निषेध नहीं जोड़ा गया।
यानी नीति वक्तव्य था, क्रांतिकारी बदलाव नहीं।
चार्टर एक्ट 1833 कोई मामूली कानून नहीं था –
यह भारत के प्रशासनिक इतिहास में एक टर्निंग पॉइंट था।
- व्यापारिक एकाधिकार खत्म
- केंद्रीकृत प्रशासन की शुरुआत
- कानून निर्माण की बुनियाद
- और भारतीयों के लिए अवसर की बातें (बिना ठोस क्रियान्वयन के)
यह अधिनियम ब्रिटिश हुकूमत को भारत में एक संगठित मशीन बनाने की दिशा में बड़ा कदम था —
जहाँ कंपनी अब व्यापार नहीं, सिर्फ़ शासन की भूमिका में थी।
चार्टर एक्ट 1853: कंपनी तो वही रही, लेकिन खेल के सारे नियम बदल गए!
सन् 1853 — ब्रिटिश संसद ने फिर से भारत पर एक नज़र डाली।
उन्होंने देखा कि कंपनी तो शासन कर रही है, लेकिन अब इसे थोड़ा और सिस्टमेटिक, थोड़ा और लोकतांत्रिक बनाना होगा।
बस, संसद ने थमा दिया नया औज़ार —
चार्टर एक्ट 1853।
यह एक्ट शायद सबसे ज्यादा “डिटेल्ड और सोचा-समझा” एक्ट था,
जिसने भारत की प्रशासनिक मशीनरी को नए गियर में डाल दिया।
1. पहली बार – चार्टर बिना टाइम लिमिट के
अब तक हर चार्टर एक्ट कहता था:
“कंपनी को अगले 20 साल तक भारत चलाने की अनुमति दी जाती है।”
लेकिन इस बार ब्रिटिश संसद ने कहा:
“कंपनी की सत्ता जारी रहेगी… पर अब हमारी मर्ज़ी पर।”
यानी कंपनी को ट्रायल पर रखा गया, जैसे कोई कर्मचारी “प्रोबेशन” पर होता है!
2. कानून बनाने की असली मशीन – नई केंद्रीय विधायी परिषद
अब तक जो गवर्नर-जनरल की परिषद थी, उसमें कानून बनते थे, पर प्रोपर संसद वाली फील नहीं थी।
1853 ने इस ढांचे को पूरी तरह बदल दिया।
- अब बनी एक सेंट्रल लेजिस्लेटिव काउंसिल,
- जिसमें 12 सदस्य थे,
- और कुछ सदस्य भारत के प्रांतों से लिए गए —
यानी पहली बार बॉम्बे, मद्रास, बंगाल और उत्तर-पश्चिमी प्रांतों के प्रतिनिधि भी इसमें शामिल हुए।
भारत में “संसदीय प्रणाली” का बीज यहीं बोया गया।
3. नागरिक और प्रशासनिक कार्यों की अलग-अलग चाभी
इस एक्ट ने गवर्नर-जनरल की परिषद को दो हिस्सों में बाँट दिया:
- एग्जीक्यूटिव बिजनेस (प्रशासनिक कार्य)
- लेजिस्लेटिव बिजनेस (कानून बनाना)
मतलब अब शासन और कानून निर्माण अलग-अलग ‘कमरे’ में होने लगे —
जो भविष्य में ब्रिटिश संसद जैसी व्यवस्था की तैयारी थी।
4. ICS यानी इंडियन सिविल सर्विस का जन्म!
पहली बार भारत में प्रतियोगी परीक्षा (competitive exam) के ज़रिए सिविल सेवा में भर्ती की बात की गई।
मतलब अब कंपनी के अफसर सिर्फ़ “सिफारिश” से नहीं,
परीक्षा पास करके बनेंगे “साहब”।
हाँ, परीक्षा लंदन में होती थी, तो भारतीयों के लिए राह मुश्किल जरूर थी,
लेकिन दरवाज़ा पहली बार खोला गया।
5. भारतीय प्रतिनिधित्व? कहीं नज़र नहीं आया!
हाँ, कुछ प्रांतों से सदस्य तो लाए गए,
लेकिन किसी भी भारतीय को इस परिषद का हिस्सा नहीं बनाया गया।
अंग्रेजों का फॉर्मूला था —
“भारत पर चर्चा हो सकती है, पर भारतीयों के बिना।”
चार्टर एक्ट 1853,
ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का आखिरी रिफॉर्मेटिव चार्टर था।
इसके बाद 1857 में बवाल होना था — और हुआ भी!
इस एक्ट ने:
- भारत में केंद्रीय विधायिका को ठोस रूप दिया,
- कानून और शासन को अलग-अलग संस्थागत रूप में विभाजित किया,
- और सिविल सेवा में परीक्षा आधारित भर्ती का सिद्धांत लागू किया।
कंपनी के लिए यह आखिरी चेतावनी थी —
“अब सुधार करो… वरना हटो।”
निष्कर्ष: कंपनी के साहब से सरकार तक की यात्रा (1773–1853)
1773 से 1853 तक का कालखंड ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए एक व्यापारी से प्रशासक बनने की लंबी लेकिन सुनियोजित यात्रा थी।
जिस कंपनी का उद्देश्य पहले सिर्फ मुनाफ़ा था, वह धीरे-धीरे नियम बनाने वाली और फिर ‘भारत चलाने वाली सरकार’ बन गई।
- 1773 का रेग्युलेटिंग एक्ट कंपनी पर नियंत्रण की शुरुआत थी,
- 1784 का पिट्स इंडिया एक्ट में क्राउन और कंपनी के रिश्ते की परिभाषा तय हुई,
- 1813 और 1833 के चार्टर एक्ट्स ने कंपनी के व्यापारिक अधिकार छीने,
- और 1853 का चार्टर कंपनी को प्रशासनिक ‘ठेकेदार’ बनाकर सिर्फ़ गवर्नेंस पर सीमित कर गया।
इन 80 वर्षों में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को सिर्फ़ लूटा ही नहीं,
बल्कि अपने शासन को स्थायी बनाने के लिए एक मजबूत प्रशासनिक ढांचा भी खड़ा किया —
जिसकी नींव पर बाद में ब्रिटिश सरकार ने सीधा शासन स्थापित किया।
पर इस पूरे दौर में भारतीयों की भागीदारी लगभग न के बराबर रही।
हमारे नाम पर नीतियाँ बनीं, लेकिन बिना हमारी मौजूदगी के।
1853 के बाद सब्र का बाँध टूटा,
और 1857 में भारतीयों ने सीधे सवाल किया — “कंपनी तुम्हारी, देश हमारा कैसे?”
यानी, यह दौर था “कंपनी की सत्ता का चरम और उसका अंतिम पड़ाव।”
अब बारी थी — क्रांति की, संघर्ष की, और सत्ता के असली मालिक की वापसी की।