भारत का संवैधानिक विकास (भाग -2 ताज का शासन)


अब चलिए जानें कि कैसे 1857 की क्रांति के बाद ब्रिटिश संसद ने कंपनी से सत्ता छीनकर ब्रिटिश ताज को भारत का मालिक बना दिया —


भारत सरकार अधिनियम 1858: “अब कंपनी गई, महारानी आई!”

सन् 1857 में पूरे भारत में आग लग गई —
यह कोई मामूली विद्रोह नहीं, बल्कि बर्तनों से चिंगारी लेकर सत्ता तक जलती क्रांति थी।
और नतीजा?
ब्रिटिश सरकार ने आखिरकार मान लिया — “ईस्ट इंडिया कंपनी फेल हो चुकी है।”

तब आया भारत सरकार अधिनियम 1858
जिसने भारत के इतिहास का सबसे बड़ा उलटफेर किया:
ईस्ट इंडिया कंपनी खत्म, ब्रिटिश क्राउन शुरू!


1. कंपनी का The End!

इस अधिनियम के आते ही,
ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त कर दिया गया।
अब भारत सीधे ब्रिटिश सम्राट/सम्राज्ञी के अधीन आ गया।

अधिकारिक एलान:
“भारत अब ब्रितानी ताज के अधीन होगा।”


2. महारानी की मर्सीडीज नहीं आई, पर महारानी का एलान आया!

1858 में ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया ने एक “Proclamation” जारी किया,
जिसमें भारतीयों को भरोसा दिलाया गया:

  • धर्म में दखल नहीं देंगे,
  • नौकरी में अवसर मिलेंगे,
  • और कानून सबके लिए बराबर होगा।

(बिलकुल जैसे कोई नया सीएम शपथ के बाद भाषण देता है!)


3. गवर्नर-जनरल बना “वायसराय” – अब कंपनी वाला साहब नहीं, ताज का नुमाइंदा

अब भारत का सबसे बड़ा बॉस था – वायसराय ऑफ इंडिया,
जो ब्रिटिश सम्राट का प्रतिनि​धि था।

लॉर्ड कैनिंग पहले वायसराय बने।

वायसराय शब्द ही बता देता है:
“अब यह शासन निजी कंपनी का नहीं, बल्कि पूरे साम्राज्य का है।”


4. नया मंत्रालय – भारत के लिए अलग Secretary of State

लंदन में बैठी ब्रिटिश सरकार ने भारत के लिए एक खास मंत्रालय बनाया:
Secretary of State for India

  • इसके पास भारत से जुड़ी सारी शक्तियाँ थीं।
  • इसके साथ बनी 15 लोगों की एक भारतीय परिषद (Council of India)

मतलब अब कंपनी का बोर्ड नहीं, ब्रिटिश संसद के नियंत्रण में भारत चला।


5. सेना, प्रशासन और बजट – सब अब ताज के अधीन

  • कंपनी की फौज अब ब्रिटिश सेना में मिला दी गई।
  • प्रशासनिक अफसर अब ब्रिटिश सरकार के कर्मचारी बन गए।
  • और भारत का पैसा अब ब्रिटिश संसद की निगरानी में खर्च होने लगा।

6. भारतीयों के लिए बड़ी बातें, पर हकीकत में कुछ नहीं बदला

  • अधिनियम ने कहा कि भारतीयों को योग्यता के आधार पर नौकरी मिलेगी,
    लेकिन परीक्षा अब भी लंदन में होती थी।
  • अधिनियम ने कहा कि धर्म में हस्तक्षेप नहीं होगा,
    पर ईसाई मिशनरियों की गतिविधियाँ बढ़ती ही रहीं।

भारत सरकार अधिनियम 1858
एक ओर से देखा जाए तो यह अधिनियम था —
“कंपनी से सत्ता छीनने” का,
पर दूसरी ओर यह था —
“भारत को पूरी तरह औपनिवेशिक राज्य” में बदलने का।

अब भारत ताज का गहना बन चुका था,
और भारतीय – उस गहने की सिर्फ़ चमक देखने वाले गुलाम।

1858 का ये अधिनियम भारत के लिए एक नई गुलामी की शुरुआत थी –
जहाँ सरदार बदल गया, पर सलामी वही रही।




भारतीय परिषद अधिनियम 1861: “अब राजा लोग भी आएंगे, लेकिन बस नाम के लिए!”

1857 की क्रांति के बाद ब्रिटिश सरकार को ये समझ आ गया कि सिर्फ लाठियों से नहीं, थोड़ी “लोकप्रियता की लपेट” भी ज़रूरी है।
तो महारानी ने कहा — “कुछ भारतीयों को भी सत्ता की सेल्फी में शामिल करो।”
बस फिर क्या था, 1861 में आ गया – Indian Councils Act, 1861

यह अधिनियम ऐसा था, जैसे किसी क्लब की सदस्यता मिल जाए… पर वोटिंग राइट्स ना मिलें!


1. पहली बार भारतीयों को मिली ‘गेस्ट एंट्री’

इस एक्ट ने वायसराय को अधिकार दिया कि वह कुछ भारतीयों को गैर-आधिकारिक सदस्य (non-official members) के रूप में अपनी विधायी परिषद में नामित करे।

लॉर्ड कैनिंग ने तीन ‘खास’ लोगों को बुलाया:

  • बनारस के राजा,
  • पटियाला के महाराजा,
  • और सर दिनकर राव (ग्वालियर राज्य के दीवान)।

पर ध्यान रहे — ये लोग सिर्फ़ दिखाने के लिए थे,
निर्णय तो फिर भी अंग्रेज़ ही लेते थे।


2. केंद्र से थोड़ा विकेंद्रीकरण – बॉम्बे और मद्रास को मिली फिर से पावर

चार्टर एक्ट 1833 में केंद्र ने सबकुछ हड़प लिया था।
लेकिन अब समझ आ गया कि पूरा देश एक जगह से चलाना मुश्किल है।

तो 1861 के अधिनियम ने:

  • बॉम्बे और मद्रास को फिर से विधायी शक्तियाँ दीं,
  • और कहा — “तुम भी अब अपने हिसाब से कुछ कानून बना सकते हो।”

3. नई विधायी परिषदें: बंगाल, NWP और पंजाब को भी मिली आवाज़ (थोड़ी सी)

बंगाल, उत्तर-पश्चिमी प्रांत (NWP) और पंजाब जैसे क्षेत्रों में भी
नई विधायी परिषदों की स्थापना की बात हुई।

यानी भारत में प्रशासनिक भागीदारी का नक्शा अब थोड़ा और विस्तृत होने लगा —
(हालांकि स्टीयरिंग अब भी अंग्रेज़ों के हाथ में ही थी!)


4. पोर्टफोलियो प्रणाली का जन्म: हर मंत्री को मिला अपना विभाग

अब वायसराय की कार्यकारिणी परिषद के सदस्य ऐसे नहीं बैठे रहते थे जैसे बरात में बिन नाचे हुए रिश्तेदार।
उन्हें “पोर्टफोलियो”, यानी एक-एक सरकारी विभाग सौंपा गया।

अब कोई था वित्त का मालिक, कोई सेना का, कोई सार्वजनिक निर्माण का —
और सब अपने-अपने कामों में आदेश दे सकते थे।

यह प्रणाली आज के मंत्रालयों की नींव थी!


5. वायसराय को मिली सुपरपावर – ‘अध्यादेश’ का हंटर

इस अधिनियम ने वायसराय को अधिकार दिया कि आपातकाल की स्थिति में
बिना किसी से पूछे एक ‘अध्यादेश (ordinance)’ जारी कर सकता है।

  • इसकी वैधता 6 महीने तक रहती,
  • और यह संसद के कानून जैसा ही होता।

यानि वायसराय अब थोड़े-बहुत सुपरहीरो बन गए थे –
“जब ज़रूरत हो, सीधे अध्यादेश मारो!”


भारतीय परिषद अधिनियम 1861
ब्रिटिश राज का एक ऐसा कदम था, जिसमें भारतीयों को पहली बार सत्ता के गलियारों में घुमाया गया…
लेकिन सिर्फ़ दरवाज़े तक।

  • कुछ राजाओं-महाराजाओं को शामिल कर दिखाया गया कि ‘भारत को शामिल किया गया है’,
  • पोर्टफोलियो और विकेंद्रीकरण से प्रशासनिक कुशलता लाई गई,
  • और अध्यादेश जैसे प्रावधानों से वायसराय को अबातकालीन हथियार भी दे दिए गए।

पर असल बात तो यही रही —
भारतीय अब भी मेहमान थे, मेज़बान नहीं।



भारतीय परिषद अधिनियम, 1892: “अब बात करने की इजाज़त है… पर फैसला नहीं!”

सन् 1892.
कांग्रेस का जन्म हुए कुछ ही साल हुए थे।
ब्रिटिश सरकार पर अब थोड़ा-थोड़ा प्रेशर बनने लगा था —
“कुछ तो करो वरना ये देसी नेता बहुत बोलेंगे!”

ब्रिटिश सोच में हलचल मची, और निकाला गया एक नया जुगाड़ —
Indian Councils Act, 1892
या कहिए, “लॉलीपॉप रिफॉर्म”!


1. परिषदों में बढ़ी सीटें – पर सीट पर कंट्रोल अब भी अंग्रेज़ों का

इस अधिनियम ने कहा:
“चलो गैर-सरकारी सदस्यों की संख्या बढ़ा देते हैं…”
लेकिन ध्यान रहे –
सत्ता नहीं, सिर्फ़ सीटें बढ़ीं।

यानि अब भारतीय सदस्य ज़्यादा थे,
पर उनकी बोलने की आवाज़ उतनी ही धीमी थी जितनी पहले।


2. बजट पर चर्चा! – अब बस सवाल पूछने की छूट

इस अधिनियम ने विधायी परिषदों को बजट पर चर्चा करने की अनुमति दी।
पर ज़रा ठहरिए…

बात करना allowed, फैसला लेना disallowed!

  • हाँ, सवाल पूछ सकते थे
  • लेकिन उस पर बहस नहीं कर सकते थे,
  • और तो और, follow-up सवाल तक पूछने की इजाज़त नहीं थी।

यानि अंग्रेज़ों ने कहा —
“बोलो तो सही, हम सुनेंगे… पर मानेंगे नहीं!”


3. सदस्य कैसे चुने जाएंगे? – लोकतंत्र नहीं, ‘सिफारिशतंत्र’ आया

कांग्रेस को चुनाव चाहिए था —
ब्रिटिश बोले, “ठीक है, पर नाम चुनाव नहीं, recommendation से आएगा।”

इस अधिनियम ने तय किया कि:

  • केंद्रीय परिषद में सदस्य चुने जाएंगे
    • प्रांतीय विधायी परिषदों की सिफारिशों से,
    • और बंगाल चैंबर ऑफ कॉमर्स की अनुशंसा पर।
  • प्रांतीय परिषदों के सदस्य चुने जाएंगे
    • जिला बोर्ड,
    • नगरपालिका,
    • विश्वविद्यालय,
    • व्यापार संघ,
    • ज़मींदार,
    • और चेंबर्स ऑफ कॉमर्स की अनुशंसा से।

मतलब…
नाम लोकतंत्र का, पर प्रक्रिया “जुगाड़” वाली।


भारतीय परिषद अधिनियम 1892 था अंग्रेजों की एक चालाकी —
जिसमें उन्होंने कहा:
“भारतीयों को बोलने दो… लेकिन सुनना ज़रूरी नहीं!”

  • कुछ सीटें दी गईं,
  • थोड़ी चर्चा की छूट मिली,
  • लेकिन शक्ति का कुंजीपटल अब भी उन्हीं के पास था।

यह अधिनियम कांग्रेस को “थोड़ा-बहुत मीठा” देने जैसा था –
ताकि वे आंदोलन कम करें।

लेकिन जल्द ही कांग्रेस समझ गई —
“ये सुधार नहीं, सिर्फ़ दिखावा है!”
और मांग की गई: “हमें अधिकार चाहिए, सिर्फ़ सलाह नहीं।”




भारतीय परिषद अधिनियम, 1909 ( मिंटो-मार्ले सुधार): “सीट बढ़ी, अधिकार नहीं… और धर्म का तड़का अलग से!

1905 में बंगाल विभाजन हुआ, जनता भड़की, आंदोलन हुए,
कांग्रेस गरजने लगी और लॉर्ड कर्जन डरने लगे।
ब्रिटिश सरकार को लगा – अब कुछ “ठंडा” करना पड़ेगा।

तभी लॉर्ड मोर्ले (ब्रिटेन के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट) और लॉर्ड मिंटो (भारत के वायसराय) ने मिलकर बनाया एक ऐसा फॉर्मूला,
जिससे लगे भी कि सुधार हुआ है…
और ब्रिटिश राज की पकड़ भी ढीली न पड़े!

इसका नाम रखा गया —
भारतीय परिषद अधिनियम, 1909
या कहें — “Divide and Rule का नया संसदीय संस्करण!”


1. सीटें बढ़ीं, पर कुर्सी पर अब भी अंग्रेज़ ही बैठा था!

  • केंद्रीय विधायी परिषद में सदस्यों की संख्या 16 से बढ़ाकर 60 कर दी गई।
  • प्रांतीय विधायी परिषदों में भी सदस्यों की संख्या बढ़ी,
    लेकिन समान रूप से नहीं — कहीं ज़्यादा, कहीं नाम मात्र।

यानि कुछ भारतीयों को सीट मिली,
पर फैसले लेने की कुंजी अब भी लंदन के पास थी!


2. सवाल पूछो, बहस करो… लेकिन लिमिट में!

भारतीय सदस्य अब:

  • बजट पर प्रस्ताव रख सकते थे,
  • अनुपूरक (follow-up) प्रश्न पूछ सकते थे,
  • और कभी-कभी बहस में हिस्सा ले सकते थे

पर असली अधिकार?
वही पुरानी कहानी – नहीं दिया गया!


3. पहली बार भारतीय शामिल हुए एग्जीक्यूटिव में – “लेकिन नाम भर के लिए”

इस अधिनियम ने ऐतिहासिक कदम उठाया —
भारतीयों को कार्यकारी परिषदों में शामिल करने की अनुमति दे दी।

  • सत्येंद्र प्रसन्ना सिन्हा बने पहले भारतीय,
    जो वायसराय की कार्यकारी परिषद में कानून सदस्य बनाए गए।

लोग बोले – “वाह! सुधार आ गया।”
पर हकीकत में –
नीतियाँ अब भी वहीं बन रही थीं, जहाँ “Indian Opinion” सिर्फ़ शोर समझा जाता था।


4. मुस्लिमों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र – “शुरुआत हुई फूट की!”

अब आया असली “तड़का”:
मुसलमानों के लिए सामुदायिक प्रतिनिधित्व (Separate Electorate) की शुरुआत!

  • मुसलमानों को कहा गया —
    “आप अपने ही समुदाय के लिए वोट करेंगे, और वही आपको चुनेगा।”

यानी एक धार्मिक पहचान पर आधारित राजनीति की नींव रख दी गई।

कांग्रेस चौंकी, तिलमिलाई —
“ये तो डिवाइड एंड रूल का सीधा खेल है!”


भारतीय परिषद अधिनियम, 1909 एक तरफ सुधारों की मिठास लेकर आया,
तो दूसरी तरफ राजनीति में जहर का पहला बीज भी बो दिया।

  • हाँ, भारतीयों को मंच मिला,
  • सवाल-जवाब का खेल शुरू हुआ,
  • सीटें बढ़ीं,
  • पर असली कमान अब भी ब्रिटिश हाथों में ही रही।

और सबसे बड़ी बात —
धर्म के आधार पर चुनाव की शुरुआत ने आने वाले दशकों के लिए देश को दो हिस्सों में बांटने की भूमिका लिख दी।




1919 का भारत सरकार अधिनियम: सुधार की चाय, लेकिन बिना शक्कर के!

साल था 1919। दुनिया पहली बार की भयंकर लड़ाई (World War I) से उबर रही थी, और भारत? वो अंग्रेजों से थोड़ी सी जिम्मेदारी मांग रहा था। अंग्रेजों ने कहा, “ले लो भाई, पर पूरी नहीं… आधी अधूरी!” और यहीं से शुरू हुआ मॉन्टैग्यू-चेल्म्सफोर्ड सुधार का खेल, जिसे हम और आप जानते हैं भारत सरकार अधिनियम, 1919 के नाम से।


केंद्र और प्रांतों में ‘हदबंदी’

इस अधिनियम ने सबसे पहले तो शासन के विषयों की खींच दी लाइन—केंद्र का अलग, प्रांत का अलग। यानी अब प्रांतों को भी कुछ फैसले खुद लेने का हक मिला। मगर ये ‘स्वतंत्रता’ थी भी और नहीं भी—क्योंकि प्रांतों में भी सरकार दो टुकड़ों में बंटी थी:

  1. हस्तांतरित विषय – जैसे शिक्षा, लोक स्वास्थ्य, जो भारतीय मंत्रियों को दिए गए।
  2. आरक्षित विषय – जैसे पुलिस और राजस्व, जो अब भी गवर्नर साहब के जेब में ही रहे।

इसे ही कहा गया – द्वैध शासन। नाम तो अंग्रेज़ी में Dyarchy था, पर असल में ये था “उलझा हुआ प्रशासन”।


अब वोट भी दो, पर सब नहीं!

अंग्रेजों ने कहा – “लोकतंत्र देंगे!” लेकिन फिर जो दिया, वो सशर्त था। हर किसी को वोट नहीं मिला—सिर्फ वही लोग मतदाता बने जो जमीनदार थे, टैक्स भरते थे या डिग्रियों के गहनों से लदे थे

बाकी जनता? वो सिर्फ देखती रही—“वाह रे लोकतंत्र!”


दूसरी बड़ी बात – दो सदन बनाए गए

केंद्र में पहली बार बना द्विसदनीय विधानमंडल—यानि दो हॉल:

  • काउंसिल ऑफ स्टेट (बुज़ुर्गों का क्लब)
  • लेजिस्लेटिव असेंबली (युवाओं का मंच)

और हाँ, कुछ सीटों पर हुआ प्रत्यक्ष चुनाव—एक और बड़ी बात!


भारतीय भी अब ‘टीम मेंबर’ बने

वायसराय की टीम में अब भारतीयों को भी जगह मिली। कुल 6 में से 3 भारतीय सदस्य। ये बात सुनते ही कई लोगों को लगा—”लो जी, अब हम भी शासन करेंगे!”

पर असल में क्या था? निर्णय अभी भी “साहब” ही लेते थे, भारतीयों की भूमिका सीमित ही रही।


सामुदायिक प्रतिनिधित्व की चाल

इस अधिनियम में अलग निर्वाचन क्षेत्र बना दिए गए: मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों, एंग्लो-इंडियन और यूरोपियों के लिए। पहली बार राजनीतिक व्यवस्था में साम्प्रदायिकता को संस्थागत कर दिया गया।

मतलब—“लड़वाओ और शासन करो” की पॉलिसी अब और मजबूत हुई।


उच्चायुक्त और UPSC की शुरुआत

  • भारत का उच्चायुक्त अब लंदन में बैठकर भारत का इंटरनेशनल PR संभालेगा।
  • और केंद्रीय लोक सेवा आयोग (UPSC) की स्थापना हुई—जो आज भी सिविल सर्विस का मसीहा है।

बजट भी अब अलग-अलग!

पहली बार प्रांतीय बजट को केंद्रीय बजट से अलग किया गया, और प्रांतीय विधानसभाओं को अपने फैसले खुद लेने का मौका मिला। अब मंत्री लोग अपना बजट बना सकते थे—पर गवर्नर की नज़र अभी भी उन पर थी।


लेकिन फिर… रोलेट एक्ट और धोखा

1919 में ही आया रोलेट अधिनियम, जिसने बिना मुकदमा चलाए गिरफ्तारी की छूट दे दी। जनता को लगा कि “सुधार तो सिर्फ दिखावा था!” और फिर हुए जलियांवाला बाग जैसे दिल दहला देने वाले हादसे।


साइमन आयोग – एक और तमाचा

1927 में आया साइमन कमीशन—जिसमें कोई भी भारतीय सदस्य नहीं था। भारतीयों ने जब विरोध किया, तो कहा गया: “तुम लोग अभी शासन के काबिल नहीं!”

मतलब—सुधारों की गाड़ी स्टार्ट तो हुई थी, लेकिन गियर न्यूट्रल में ही रह गया।


सुधार या सिर्फ दिखावा?

भारत सरकार अधिनियम, 1919 ने प्रशासन में भारतीयों की भागीदारी की झलक तो दिखाई, लेकिन हकीकत में सत्ता की चाबी अभी भी अंग्रेजों के ही पास थी। यह एक ऐसा सुधार था जिसमें उम्मीदें ज्यादा थीं, लेकिन असर कम।

यह शुरुआत थी, लेकिन मंज़िल अभी बहुत दूर थी। अगला बड़ा पड़ाव था – भारत सरकार अधिनियम, 1935… जिसमें संविधान की झलक मिलने लगी।




भारत सरकार अधिनियम, 1935: संविधान आया, पर चाबी फिर भी गोरों के हाथ!

1935 का साल… भारत की आज़ादी की लड़ाई अपने जोश पर थी, कांग्रेस के नेता “पूर्ण स्वराज” का नारा लगा चुके थे, और ब्रिटिश हुकूमत…?

वो तो एक नए “रूल बुक” के साथ आई थी—जिसका नाम था:
Government of India Act, 1935
(भारत सरकार अधिनियम, 1935)

ब्रिटिश संसद ने इस अधिनियम के ज़रिए ऐसा संविधान बनाया जो पहली नज़र में बहुत बड़ा, बहुत भारी, और बहुत असरदार लगा… लेकिन जैसे-जैसे पढ़ते गए, भारतीयों को समझ आया कि ये तो “सत्ता का वादा, पर बिना सत्ता के!”


1. भारत परिषद को कहा गया “टाटा, बाय-बाय”

ब्रिटिश सरकार ने कहा, “भारत परिषद अब बासी हो चुकी है!”
और उसे औपचारिक रूप से खत्म कर दिया गया। अब सारा प्रशासनिक नियंत्रण गवर्नर-जनरल और उनके वायसराय कार्यालय में सिमट आया।


2. RBI: पैसा अपना, लेकिन कंट्रोल उनका!

1935 के इस अधिनियम के तहत भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) की स्थापना की गई, ताकि भारत में मुद्रा और ऋण प्रणाली का नियंत्रण किया जा सके।

पर मज़े की बात ये थी—RBI भी शुरुआत में ब्रिटिश अधिकारियों के अधीन था।
मतलब, “बैंक हमारा, ब्याज उनका!”


3. नौकरी का दरवाज़ा: संघ लोक सेवा आयोग की शुरुआत

  • Union Public Service Commission (UPSC)
  • Provincial PSC
  • और एक Joint PSC का प्रावधान किया गया।
    भारतीयों के लिए नौकरियों के दरवाजे खोले गए, लेकिन चयन अब भी उस ‘ब्रिटिश मानक’ पर होता था जो भारतीयों के लिए अक्सर सपना ही था।

4. संघीय न्यायालय: भारत का पहला ‘सुप्रीम’ प्लेटफॉर्म

इस अधिनियम के ज़रिए Federal Court की स्थापना का रास्ता खुला, जो 1937 में अस्तित्व में आया।
यह भारत का पहला ऐसा न्यायालय था, जहाँ ब्रिटिश इंडिया और रियासतों के बीच विवादों का समाधान किया जाता था।


5. डोमिनियन स्टेटस? बस नाम का वादा!

इस अधिनियम में बार-बार “डोमिनियन स्टेटस” का नाम लिया गया, यानी ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर एक अर्ध-स्वतंत्र राज्य

लेकिन…
ना कोई समयसीमा तय की गई,
ना ही इस वादे को संवैधानिक ज़िम्मेदारी में बदला गया।
डोमिनियन स्टेटस—बस एक चमकदार झुनझुना था।


6. नागरिक अधिकार? कौन पूछता है!

इस अधिनियम में मौलिक अधिकारों की कोई बात नहीं हुई।
ना प्रेस की स्वतंत्रता,
ना बोलने की आज़ादी,
ना समानता का अधिकार।
ब्रिटिश सरकार को डर था कि अगर ये सारे अधिकार दे दिए, तो भारत वाकई आज़ाद हो जाएगा!


7. गवर्नर और गवर्नर-जनरल की सत्ता जस की तस!

बाहरी चमक के बावजूद, गवर्नर-जनरल और प्रांतीय गवर्नरों के पास सभी निर्णायक अधिकार बने रहे

यानी अगर कोई भारतीय मंत्री शिक्षा या स्वास्थ्य के लिए नीति बनाए, तो गवर्नर साहब कह सकते थे—“ना जी, मुझे मंज़ूर नहीं!”


8. साम्प्रदायिक निर्वाचन: बांटो और राज करो – Part 2

इस अधिनियम ने अलग निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था को और भी बढ़ावा दिया:

  • मुसलमान
  • सिख
  • ईसाई
  • एंग्लो-इंडियन
  • व्यापारिक वर्ग
  • ज़मींदार

अब हर किसी के लिए अलग सीट, अलग वोट—समाज को बांटने का पक्का इंतज़ाम!


9. संविधान, मगर British Parliament के पास चाबी!

1935 का अधिनियम 321 धाराओं और 10 अनुसूचियों वाला महाकाव्य था—पर संशोधन का अधिकार सिर्फ ब्रिटिश संसद के पास था।

मतलब संविधान तो बना दिया, पर भारत वालों को उसमें कोई बदलाव करने की इजाजत नहीं।


तो निष्कर्ष क्या निकला?

भारत सरकार अधिनियम, 1935 अपने आप में एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ था। इससे कई संस्थाएं शुरू हुईं जो आज भी हमारे संविधान का हिस्सा हैं—जैसे RBI, UPSC, और संघीय न्यायपालिका

पर यह संविधान ब्रिटिश हुकूमत के एजेंडे से बना था, भारतीय जन-इच्छा से नहीं।

यह भारत को आज़ादी की राह पर थोड़ा आगे तो ले गया,
लेकिन चाबी अब भी इंग्लैंड के लॉर्ड्स के हाथ में ही रही।




भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947: आज़ादी मिली… बंटवारे के बिल के साथ!

1947… वो साल जिसने इतिहास की किताबों को आँसुओं और उल्लास दोनों से भर दिया।
सालों की गुलामी, संघर्ष, बलिदान और अंतहीन इंतज़ार के बाद ब्रिटिश सरकार ने एक अधिनियम पास किया
नाम था: Indian Independence Act, 1947
(भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947)

लेकिन जनाब, यह कोई सीधा-सादा “स्वतंत्रता पत्र” नहीं था, यह एक क्लासिक ब्रिटिश डिप्लोमेसी का नमूना था—जिसमें “छूट तो दी गई”, मगर बंटवारे की स्याही में डुबाकर


1. माउंटबेटन प्लान: बंटवारे का ब्लूप्रिंट

लॉर्ड माउंटबेटन, जो कि आखिरी ब्रिटिश वायसराय थे, उन्होंने एक “तेज़ रफ्तार विभाजन योजना” बनाई, जिसे ही इतिहास में Mountbatten Plan कहा जाता है।

मजेदार बात ये कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग, जो शायद ही किसी बात पर सहमत होते थे—इस प्लान को दोनों ने एकमत से स्वीकार कर लिया।
(क्योंकि या तो देश टूटता, या पूरा ही जलता।)


2. अब भारत ‘गुलाम भारत’ नहीं, बल्कि ‘डोमिनियन इंडिया’

इस अधिनियम ने 15 अगस्त 1947 से भारत को स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र घोषित कर दिया।
साथ ही पाकिस्तान भी एक अलग राष्ट्र बना, और दोनों को ब्रिटिश कॉमनवेल्थ में रहने या बाहर जाने की आज़ादी मिली।


3. संविधान अब हमारा मामला है, तुम्हारा नहीं!

भारत और पाकिस्तान—दोनों को ये अधिकार दिया गया कि वे

  • अपनी संविधान सभा बनाएं
  • अपनी इच्छा से कोई भी संविधान लागू करें
  • और अगर चाहें तो ब्रिटिश संसद के इस अधिनियम को भी “कूड़ेदान” में डाल सकते हैं!

यह भारत के लिए एक ऐतिहासिक मोड़ था—कानून अब लंदन में नहीं, दिल्ली में बनेंगे।


4. ब्रिटिश ‘सचिव’ साहब: अब आप “रिटायर” हो जाइए

अधिनियम ने भारत के लिए ब्रिटिश सेक्रेटरी ऑफ स्टेट का पद समाप्त कर दिया।
उनके अधिकार कॉमनवेल्थ मामलों के सचिव को दे दिए गए, यानी अब सीधी दखलंदाजी बंद।


5. अब राजा भी नहीं रोक सकता बिल

ब्रिटिश सम्राट के पास जो विशेष अधिकार था —
कि वह भारत के किसी कानून को वीटो कर सके, या रिज़र्व रख सके,
वो अधिकार भी खत्म कर दिए गए।

यानी अब ब्रिटिश राजा सिर्फ डाक टिकट पर मुस्कुराने तक सीमित हो गए!


6. गवर्नर-जनरल और गवर्नर: अब सिर्फ रबर स्टैम्प

अधिनियम ने साफ कर दिया कि भारत के गवर्नर-जनरल और प्रांतीय गवर्नर सिर्फ संवैधानिक प्रमुख होंगे, वास्तविक सत्ता प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल के पास होगी।


7. “राजा-ए-हिंद” की उपाधि गई टहलने

ब्रिटिश सम्राट की एक भारी-भरकम उपाधि थी — Emperor of India
अब इसकी ज़रूरत नहीं थी।
Goodbye, Emperor! Hello, Republic!


8. सरकारी नौकरियों पर अब लंदन का ठप्पा नहीं

सिविल सेवाओं की नियुक्तियाँ और आरक्षण अब भारत खुद तय करेगा, न कि कोई “ब्रिटिश सचिव”।


9. अब सत्ता का स्रोत है जनता, न कि क्राउन

सबसे बड़ा बदलाव यह था कि सत्ता का स्रोत अब ब्रिटिश क्राउन नहीं, बल्कि भारत की जनता होगी।


10. वो ऐतिहासिक दिन: 15 अगस्त 1947

और फिर वो घड़ी आई—

घड़ी की सुई ने 12 बजाए, और देश ने आज़ादी की साँस ली।

  • लॉर्ड माउंटबेटन बने भारत के अंतिम ब्रिटिश गवर्नर-जनरल
  • जवाहरलाल नेहरू बने आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री
  • और भारत की संविधान सभा बन गई अस्थायी संसद

11. रियासतें: जिधर दिल करे, उधर चले जाओ

अधिनियम के अनुसार, भारत की 500 से अधिक रियासतों को ये स्वतंत्रता दी गई कि वो चाहें तो भारत या पाकिस्तान में शामिल हों, या स्वतंत्र रहें।

यहाँ सरदार पटेल और वी.पी. मेनन की कुशलता से देश का शानदार एकीकरण हुआ—वरना आज GPS से ही समझ आता कि हम किस देश में हैं।


तो निष्कर्ष क्या है?

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 ने हमें आज़ादी दी, लेकिन बंटवारे के ज़ख्मों के साथ।

यह अधिनियम:

  • ब्रिटिश शासन की अंतिम कानूनी दस्तावेज़ था
  • जिसने स्वतंत्र भारत का जन्म कराया
  • और संविधान सभा को देश का भविष्य तय करने की पूरी छूट दी